पांच प्रतिशत से अधिक या कम मतदान से होता रहा है उत्तराखंड में बड़ा उलटफेर

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देहरादून। लोकसभा चुनाव के पहले चरण में राष्ट्रीय स्तर पर मतदान के कम प्रतिशत का अभी कोई अर्थ निकालना जल्दबाजी होगी। कारण कि पहले चरण में 20 फीसदी से भी कम सीटों पर वोटिंग हुई है। लेकिन, उत्तराखंड में सभी पांच सीटों पर मतदान में वोटरों के कम टर्न आऊट ने सियासी गणित को बिगाड़ दिया है। हालांकि भाजपा ने इसे रिकॉर्ड मतदान बताते हुए सभी पांच सीटों पर जीतने का दावा किया किया है, लेकिन चुनावी हालात का इशारा बहुत साफ नहीं है। उत्तराखंड की सभी पांच संसदीय सीटों पर शुक्रवार को हुए मतदान में वोटिंग का प्रतिशत करीब 54 रहा है। संभव है कि इसमें एक प्रतिशत तक का बदलाव हो। इसके बावजूद इतना तो तय है कि कुल मतदान का प्रतिशत 55 से अधिक नहीं जाएगा। यदि 55 प्रतिशत मतदान भी मान लें तो पिछले चुनाव के 61.48 प्रतिशत से लगभग सात प्रतिशत कम है। देश का चुनावी इतिहास गवाह है कि यदि मतदन में पांच प्रतिशत से अधिक का अंतर आया है तो फेरबदल तय माना जाता है। मिसाल के तौर पर वर्ष 2009 के आम चुनाव के 58.21 प्रतिशत के मुकाबले वर्ष 2014 में लगभग आठ प्रतिशत से ज्यादा मतदान हुआ था। इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस बुरी तरह हार गई और देश में भाजपा की सरकार बनी।

वर्ष 2019 के चुनाव में तीन प्रतिशत बढ़कर 67.40 प्रतिशत वोट पड़े, किंतु कोई परिवर्तन नहीं हुआ। केंद्र में भाजपा की सरकार बनी रही। मतदान के गणित को यदि उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में देखें तो यहां की स्थिति पूरी तरह उलझी हुई है। वर्ष 2014 के आम चुनाव में उत्तराखंड में 62 प्रतिशत वोटिंग हुई और भाजपा ने सभी पांच सीटे कब्जा ली। वर्ष 2019 के चुनाव में भी मतदान का प्रतिशत पिछले चुनाव के समान ही 61.5 प्रतिशत रहा। सभी सीटों पर भाजपा का कब्जा बरकरार रहा, लेकिन थोड़ा पीछे जाएं तो वर्ष 2004 की तुलना में 2009 में करीब चार प्रतिशत मतदान अधिक हुआ और कांग्रेस ने पांचों सीटों पर जीत हासिल कर ली। कुल मिलाकर यदि मतदान के प्रतिशत में लगभग चार से पांच प्रतिशत का अंतर आया है तो बड़ा उलटफेर हुआ है। इस बार के चुनाव में सात प्रतिशत कर अंतर आया है। इस तरह कोई भी दल यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि मतदाताओं का रूख किस ओर रहा है।

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