कालीमठ में बलिघर तोड़ने पर गबर सिंह को झेलना पड़ा भारी विरोध

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विजय भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार
रुद्रप्रयाग । गढ़वाल में बलि प्रथा प्राचीन समय से चली आ रही है। लेकिन समय-समय पर इसके खिलाफ आवाज उठने के बाद आज बहुत कम मंदिरों में ही बलि प्रथा का प्रचल रहा गया है। समाज में जागरूकता आने के बाद आज कई बड़े और सिद्धपीठों में बलि प्रथा बंद हो गए है।
ऐसे ही रुद्रप्रयाग जिले के केदारखंड में मां मंदाकिनी के तट पर स्थित सिद्धपीठ कालीमठ मंदिर में कुछ समय पूर्व बड़ी मात्रा में बलि प्रथा दी जाती थी। जिससे भैसे की बली भी दी जाती थी। मंदिर के पास ही बलिघर बना था। जिसमें एक दिन में ही कई भैसों की बली दी जाती थी। आस्था से लोग कोई भी समझौता नहीं करना चाहते थे। गरीब अमीर और हर वर्ग का व्यक्ति मन्नतें पूरी होने पर कालीमठ मंदिर में बलि देता था। भैसे की बलि देने से बलिघर के पास मृत जानवरों की बदबू आती रहती थी, इसको कोई अन्य उपयोग भी नहीं होता था। देवी मां को खुश करने को बेजुबानों की बलि देने और उसकी बदबू से परेशान स्थानीय निवासी गबर सिंह राणा ने सबसे पहले इसके खिलाफ आवाज उठाई और इसके बाद आजीवन इसके विरोध में केदारघाटी से लेकर भूंखाल और उत्तराखंड में आंदोलन छेड़ दिया। सबसे पहले उन्होंने मंदिर के पास बना बलिघर तोड़ा। जिसके विरोध में कई पंडितों और अन्य लोगों ने उनके साथ मारपीट की। आजीवन उनको इसका विरोध भी झेलना पड़ा। कई बार उन्हें कोर्ट केस भी झेलने पडे।लेकिन बेडुला निवासी गबर सिंह से इसके विरोध और इस प्रथा को बंद करने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया।अस्सी वर्षीय गब्बर सिंह राणा बताते हैं कि करीब अस्सी के दशक में उन्होंने कालीमठ मंदिर से बलि प्रथा का विरोध शुरू किया था। इसके बाद उन्होंने पौड़ी के बूंखाल और अन्य मंदिरों में भी जाकर इसका विरोध किया। एक बार पशु बलि के विरोध में उन्होंने खुद की गर्दन ही आगे कर दी थी। आक्रोशित लोगों ने उनकी गर्दन पर ही हथियार रख लिया था। लेकिन उनकी मेहतन रंग लाई और धीरे-धीरे सरकार ने बलि प्रथा को मंदिरों से बंद कर दिया। आज बूंखाल और कालीमंठ में बलि प्रथा पर रोक है।
देवभूमि में जहां लोग आस्था के नाम पर कुछ भी सहन नहीं करते हैं, ऐसे में करीब चालीस साल पहले कालीमठ मंदिर में बलि प्रथा के खिलाफ गबर सिंह राणा ने सबसे पहले आवाज उठाई। शुरूवाती दौर में लोगों ने इसका भारी विरोध किया। उनका यह अभियान आजीवन चलता रहा। अब वह अपने नाम के आगे ब्रती बाबा लगाते हैं। या सत्यब्रती कहते हैं। उन्होंने कालीमठ के पास ही अपना आश्रम भी बना रहा है। कालीमठ के दो किमी पहले ही बेडुला उनका गांव है। उत्तराखंड में बलि प्रथा के विरोध में आवाज उठाने वाले गबर सिंह राणा आज गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। इस सामाजिक बुराई के खिलाफ आवाज उठाने वाले गब्बर सिंह को कोई सम्मान आज तक नहीं मिल पाया।कुछ समय पूर्व सड़क हादसे में उनके पांच में गभीर चोट आ गई थी। जिसके बाद उनका पांच भी काटना पड़ा। लेकिन देवभूमि में निरजीव जानवरों खासकर जिनकों मारने के बाद कोई उपयोग नहीं है, के खिलाफ आवाज उठाने वाले गब्बर सिंह की पहल सराहनीय है। आज कालीमठ मंदिर में शुद्ध रूप से पूजा पाठ होता है। लोगों की आस्था आज भी उतनी ही है, लेकिन मंदिर में अब बलिप्रथा पूर्ण रूप से बंद हो गई है। किसी समय मंदिर में एक ही दिन में कई जानवरों की बलि दी जाती थी।

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